एमआईटी - डब्लूपीयू ने खेती के कचरे से ग्रीन हाइड्रोजन और बायो-सीएनजी बनाने के लिए कार्बन-नेगेटिव तकनीक विकसित की। - Swastik Mail
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एमआईटी – डब्लूपीयू ने खेती के कचरे से ग्रीन हाइड्रोजन और बायो-सीएनजी बनाने के लिए कार्बन-नेगेटिव तकनीक विकसित की।

 एमआईटी – डब्लूपीयू ने खेती के कचरे से ग्रीन हाइड्रोजन और बायो-सीएनजी बनाने के लिए कार्बन-नेगेटिव तकनीक विकसित की।
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एमआईटी – डब्लूपीयू ने खेती के कचरे से ग्रीन हाइड्रोजन और बायो-सीएनजी बनाने के लिए कार्बन-नेगेटिव तकनीक विकसित की।

(ये इनोवेशन देश के आत्मनिर्भर भारत मिशन और एलआईएफई के विचारों को आगे बढ़ाता है)

 उत्तराखंड (देहरादून) वीरवार , 11 सितंबर 2025

एमआईटी वर्ल्ड पीस यूनिवर्सिटी (एमआईटी – डब्लूपीयू ) के ग्रीन हाइड्रोजन रिसर्च सेंटर के शोधकर्ताओं ने डॉ. रत्नदीप जोशी (एमआईटी – डब्लूपीयू में ग्रीन हाइड्रोजन रिसर्च सेंटर के एसोसिएट डायरेक्टर) की अगुवाई में कार्बन-नेगेटिव प्रक्रिया विकसित की है, जो इनोवेटिव होने के साथ-साथ खेती के अलग-अलग तरह के कचरे से बायोसीएनजी और ग्रीन हाइड्रोजन के उत्पादन में मददगार है। इससे ऊर्जा के क्षेत्र में स्वच्छ और किफायती तरीके से आत्मनिर्भर बनने की राह आसान हो गई है। ये इनोवेशन देश के आत्मनिर्भर भारत मिशन और एलआईएफई (लाइफस्टाइल फॉर एनवायरनमेंट) के विचारों को आगे बढ़ाता है। साथ ही यह राष्ट्रीय ग्रीन हाइड्रोजन मिशन के भी अनुरूप है, जिसके तहत वर्ष 2030 तक सालाना 5 मिलियन मीट्रिक टन ग्रीन हाइड्रोजन के उत्पादन का लक्ष्य रखा गया है। 

यह विचार किसानों के साथ लगातार हुई बातचीत से सामने आया, जो कम समय में लगातार बारिश, लंबे समय तक सूखा और बार-बार आने वाले चक्रवातों जैसे जलवायु परिवर्तन के बुरे प्रभावों के साथ-साथ भारी मात्रा में खेती के कचरे को संभालने को लेकर परेशान रहते थे। बायोमास को गैस में बदलने के पुराने तरीके उतने कारगर नहीं थे, जिससे सिर्फ 5-7 प्रतिशत गैस तैयार हो पाती थी।

डॉ. जोशी ने कहा, “पहले भी बहुत बार कोशिश की गई, जिसमें सिर्फ धान के पुआल या नेपियर घास जैसे एक ही तरह के कच्चे माल का उपयोग किया गया। लेकिन उसके विपरीत, इस रिसर्च ने बाजरे तथा दूसरी मौसमी फसलों के अलग-अलग तरह के कचरे से यह कामयाबी हासिल की है। यह तरीका ख़ास तौर पर कम बारिश और सूखे वाले इलाक़ों के लिए बहुत कारगर है। रिसर्च के दौरान, बायोमास को गैस में बदलने की क्षमता को 12% तक पहुँचाने के लिए बायो-कल्चर विकसित किया गया। एमआईटी – डब्लूपीयू के परिसर में एक पायलट प्लांट बनाया गया है जिसकी क्षमता 500 किलो/दिन है। इसे चार पेटेंट भी मिल चुके हैं और इसका बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया जा सकता है। इस तरह तैयार बायोगैस में मीथेन की मात्रा ज़्यादा थी, जिसका इस्तेमाल ग्रीन कैटेलिटिक पायरोलिसिस प्रक्रिया के ज़रिए ग्रीन हाइड्रोजन बनाने के लिए किया गया।

एमआईटी वर्ल्ड पीस यूनिवर्सिटी के पीएचडी रिसर्च स्कॉलर, अनिकेत पात्रीकर ने कहा, “हमने पौधों से प्राप्त एक पायरोलिसिस कैटेलिस्ट इस्तेमाल किया है, जिससे ग्रीन हाइड्रोजन तैयार करते समय कार्बन डाइऑक्साइड बाहर नहीं निकलती है। और इसकी वजह से महंगे कार्बन कैप्चर सिस्टम की ज़रूरत नहीं रहती है। इस प्रक्रिया से बायोचार भी बनता है, जो एक फ़ायदेमंद बायप्रोडक्ट है और इसका इस्तेमाल फार्मास्यूटिकल्स, कॉस्मेटिक्स, खाद और कंस्ट्रक्शन जैसे क्षेत्रों में होता है।

एमआईटी वर्ल्ड पीस यूनिवर्सिटी के पीएचडी रिसर्च स्कॉलर, अविनाश लाड ने इस बात पर जोर देते हुए कहा, “दुनिया की निगाहें इलेक्ट्रोलिसिस पर टिकी हैं, पर ये अभी भी काफी महँगा है, जिसकी लागत 2 डॉलर प्रति किलोग्राम से भी ज़्यादा है। हमारी प्रक्रिया में कार्बन नहीं निकलता, जो बेहद किफायती और बड़े स्तर पर इस्तेमाल के लायक है। इसमें ग्रीन हाइड्रोजन बनाने का ख़र्च घटाकर 1 डॉलर प्रति किलोग्राम तक लाने के साथ-साथ भारत में खेती के कचरे की समस्या को सुलझाने की क्षमता है। माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने भारत के लिए 2070 तक नेट-जीरो इमिशन का लक्ष्य रखा है। ज़मीनी स्तर पर कामयाब साबित होने वाले इस तरह के इनोवेशन के साथ, भारत तेजी से आगे बढ़ रहा है और 2050 तक नेट-जीरो का लक्ष्य हासिल कर सकता है। इस तरह हमारा देश स्वच्छ, रिन्यूएबल और सस्टेनेबल एनर्जी के मामले में पूरी दुनिया में सबसे आगे हो सकता है।

एमआईटी वर्ल्ड पीस यूनिवर्सिटी के एग्जीक्यूटिव प्रेसिडेंट, डॉ. राहुल कराड ने कहा, “एमआईटी – डब्लूपीयू का मानना है कि यूनिवर्सिटी का काम बस छात्रों को पढ़ाना नहीं है, बल्कि उन्हें ऐसे समाधान भी तैयार करने चाहिए जो सीधे तौर पर समाज और देश के काम आएँ। ये रिसर्च हमारे लिए बड़े गौरव की बात है, जिससे जाहिर होता है कि किस तरह रिसर्च, इनोवेशन और समाज के प्रति ज़िम्मेदारी के सही तालमेल से जलवायु परिवर्तन और ऊर्जा सुरक्षा जैसी गंभीर चुनौतियों का समाधान निकाला जा सकता है। मुझे सबसे ज़्यादा ख़ुशी इस बात की है कि, यह इनोवेशन सिर्फ़ लैब में किया जाने वाला प्रयोग नहीं है; बल्कि यह बड़े स्तर पर काम में आने लायक, उपयोगी और भारत की ज़मीनी हक़ीक़त से जुड़ा हुआ है। मैं इसे एक बड़ा कदम मानता हूँ, जो किसानों को सक्षम बनाएगा, सस्टेनेबल इंडस्ट्री को सहारा देगा और हमारे छात्रों को तैयार करेगा कि वे आने वाले समय में भारत को हरा-भरा और आत्मनिर्भर बनाएँ।

इस प्रक्रिया में बायप्रोडक्ट के तौर पर बायोफर्टिलाइज़र भी तैयार होते हैं, जिनका इस्तेमाल खेती में यूरिया की जगह किया जा सकता है। टीम को ग्रीन-कोटेड, और धीरे-धीरे रिलीज़ होने वाले बायोफर्टिलाइज़र के लिए दो पेटेंट मिले हैं, जो यूरिया जैसे केमिकल वाले खाद पर निर्भरता कम करने और मिट्टी में नमक की मात्रा कम करके खेती को बेहतर बनाने में मदद करेंगे, क्योंकि मिट्टी में ज़्यादा नमक की मौजूदगी भारतीय खेती के लिए सबसे बड़ा ख़तरा है जो लंबे समय से बरकरार है।

यूरिया पानी सोखता है और मॉनसून में देरी होने पर फ़सल की जड़ों से पानी खींच लेता है, लेकिन उसके मुक़ाबले ये बायोफर्टिलाइज़र केवल पानी मौजूद होने पर ही एनपीके न्यूट्रिएंट्स रिलीज़ करते हैं। इससे किसानों को मदद मिलेगी और देश के ग्रामीण इलाकों में फसल की पैदावार बढ़ेगी, और साथ ही उन्हें ऐसी अर्थव्यवस्था का फायदा भी मिलेगा जिसमें कचरा फिर से इस्तेमाल हो सकता है। प्रो. जोशी ने बताया, “बायोफर्टिलाइज़र का उपयोग करके, हम कार्बन को सोखने में मदद कर रहे हैं और ग्रीनहाउस गैसों के निकलने से पर्यावरण को होने वाले नुकसान को कम कर रहे हैं।

इस इंडस्ट्रियल इनोवेशन ने ऊर्जा क्षेत्र का ध्यान पहले ही अपनी ओर खींच लिया है। बड़ी-बड़ी कंपनियों द्वारा हज़ारों सीबीजी और हाइड्रोजन यूनिट्स स्थापित करने की योजना को देखते हुए, कई जाने-माने एंटरप्रेन्योर्स ने टेक्नोलॉजी ट्रांसफर के लिए एमआईटी – डब्लूपीयू के साथ साझेदारी में दिलचस्पी दिखाई है। यूनिवर्सिटी उद्योग और अकादमिक जगत के बीच सहयोग का भी स्वागत करती है, जिससे छात्रों को इंडस्ट्री के लिए तैयार किया जाता है और हुनरमंद युवा देश को मजबूत बनाने में योगदान दे पाते हैं।

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